देवउठनी एकादशी व्रत कथा

ब्रह्माजी बोले- “हे मुनिश्रेष्ठ! अब पापों को हरने वाली पुण्य और मुक्ति देने वाली एकादशी का माहात्म्य सुनिये। पृथ्वी पर गंगा की महत्ता और समुद्रों तथा तीर्थों का प्रभाव तभी तक है, जब तक कार्तिक मास की देव प्रबोधिनी एकादशी नहीं आती। मनुष्य को जो फल एक हजार अश्वमेघ और एक सौ राजसूय यज्ञों से मिलता है, वही देव प्रबोधिनी एकादशी के व्रत से मिलता है।”

तब नारदजी ने पूछा- “हे पिता! एक समय भोजन करने, रात्रि को भोजन करने तथा सारे दिन उपवास
करने से क्या फल मिलता है, सो आप विस्तारपूर्वक समझाइये।

ब्रह्माजी बोले- “हे पुत्र ! एक बार भोजन करने से एक जन्म और रात्रि को भोजन करने से दो जन्म तथा पूरा दिन उपवास करने से सात जन्मों के पाप नष्ट होते हैं। जो वस्तु त्रिलोकी में न मिल सके और दिखाई न दे सके, वह हरि प्रबोधिनी एकादशी से प्राप्त हो सकती है। मेरु और मन्दराचचल के समान भारी पाप भी नष्ट हो जाते हैं तथा अनेक जन्म में किये हुए पाप भी नष्ट हो जाते हैं तथा अनेक जन्म में किये हुए पाप समूह क्षण-भर में भस्म हो जाते हैं। जैसे रुई के बड़े भारी ढेर को अग्नि की छोटी-सी चिंगारी भस्म कर देती है, वैसे ही विधिपूर्वक थोड़ा-सा पुण्य कर्म अनन्त का फल देता है, परन्तु विधि रहित चाहे अधिक किया जाये, तो भी उसका फल कुछ नहीं मिलता। सन्ध्या न करने वाले नास्तिक, वेद निन्दक, धर्मशास्त्र को दूषित करने वाले मूर्ख, दूसरे की स्त्री का अपहरण करने वाले, पाप कर्मों में सदैव लगे रहने वाले, धोखा देने वाले ब्राह्मण से भोग करने वाले ये सब चाण्डाल के समान हैं, जो विधवा अथवा सधवा ब्राह्मणी से भोग करते हैं, वे अपने कुल को नष्ट कर देते हैं। पर-स्त्रीगामी के सन्तान नहीं होती और उसकेपूर्व जन्म के संचित सब अच्छे कर्म नष्ट हो जाते हैं। जो गुरु और ब्राह्मणों से अहंकारयुक्त बात करता है, वह भी धन और सन्तान से हीन होता है। भ्रष्टाचार करने वाला, चाण्डाली से भोग करने वाला, दुष्ट की सेवा करने वाला और जो नीच मनुष्य की सेवा करते हैं या संगीत करते हैं, यह सब पाप हरि प्रबोधिनी के व्रत से नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य अपने-अपने मन में हरि प्रबोधिनी एकादशी के व्रत को करने का संकल्प मात्र करते हैं, उनके सौ जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं और जो रात्रि को जागरण करते हैं, उनकी आने वाली दस हजार पीढ़ियां स्वर्ग में जाती हैं। नरक के दुःखों से छूटकर प्रसन्नता के साथ सुसज्जित होकर वे विष्णुलोक को जाते हैं, ब्रह्महत्यादि महान् पाप भी इस व्रत के प्रभाव से नष्ट हो जाते हैं। जो फल समस्त तीर्थों में स्नान करने, गौ, स्वर्ण और भूमि का दान करने से होता है, वही फल एकादशी की रात्रि को जागरण से मिलता है।”

“हे मुनिशार्दूल! इस संसार में उसी मनुष्य का जीवन सफल है, जिसने हरि प्रबोधिनी एकादशी का व्रत किया है। इस संसार में जितने भी तीर्थ हैं, उन सबके स्नान दानादि का फल इस व्रत से मिलता है। अतः और सब कर्मों को त्यागकर भगवान् के प्रसन्नार्थ कार्तिक शुक्लाहरि प्रबोधिनी का व्रत करना चाहिए। वही ज्ञानी तपस्वी तथा जितेन्द्रिय है और उसी को भोग तथा मोक्ष प्राप्त होता है, जिसने हरि प्रबोधिनी एकादशी का व्रत किया है। यह विष्णु को अत्यन्त प्रिय, मोक्ष के द्वार को बताने वाली तथा उसके तत्त्व का ज्ञान देने वाली है। जिसने एक बार भी इसका व्रत किया, वह मोक्ष का अधिकारी हो जाता है। मन, कर्म, वचन तीनों प्रकार के पाप इस रात्रि को केवल जागरण करने से नाश हो जाते हैं। हरि प्रबोधिनी के दिन जो मनुष्य भगवान् के प्रसन्नार्थ स्नान, दान, तप व यज्ञादि करते हैं, वे अक्षय पुण्य को प्राप्त होते हैं। हरि प्रबोधिनी एकादशी के दिन व्रत करने से मनुष्य के बाल, यौवन और वृद्धावस्था में किये गये समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। इस एकादशी को रात्रि में जागरण का फल चन्द्र, सूर्य ग्रहण के समय स्नान करने से हजार गुना अधिक होता है। अन्य कोई भी पुण्य इस के सामने व्यर्थ है। जो मनुष्य हरि प्रबोधिनी का व्रत नहीं करते, उनके सब पुण्य व्यर्थ हैं।

अतः “हे नारद ! तुमको भी विधिपूर्वक यत्न के साथ स व्रत को करना चाहिए। जो कार्तिक मास में धर्म रायण होकर अन्न नहीं खाते हैं, उन्हें चान्द्रायण व्रत का ल प्राप्त होता है। कार्तिक मास में भगवान् दानादि सेइतने प्रसन्न नहीं होते, जितने कि शास्त्रों की कक्षाओं के सुनने से होते हैं। कार्तिक मास में जो भगवान् विष्णु की कथा का एक या आधा श्लोक भी पढ़ते-सुनते या सुनाते है। अतः अन्य सब कर्मों को छोड़कर कार्तिक मास में मेरे सम्मुख बैठकर मेरी कथा पढ़नी या सुननी चाहिए। जो कल्याण के लिए कार्तिक मास में हरि कथा कहते हैं, वे सारे कुटुम्ब का क्षणमात्र में उद्धार कर देते हैं। शास्त्रों की कथा कहने और सुनने से दस हजार यज्ञों का फल मिलता है, साथ ही उनके सब पाप भस्म हो जाते हैं। जो नियमपूर्वक हरि कथा सुनते हैं, वे एक हजार गौ दान का फल पाते हैं। विष्णु के जागने के दिन जो भगवान् की कथा सुनते हैं, वे सातों द्वीपों समेत पृथ्वी के दान करने का फल पाते हैं। जो मनुष्य भगवान् की कथा को सुनकर वाचक को अपनी सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा देते हैं, उनको सनातन लोक मिलता है।

ब्रह्माजी की यह बात सुनकर नारद मुनि ने कहा– “भगवन् ! एकादशी के व्रत की क्या विधि है, कैसा व्रत करने से क्या फल मिलता है, वह भी विस्तारपूर्वक समझाकर कहिये

नारद मुनि की बात सुनकर ब्रह्माजी कहने लगे – “ब्रह्ममुहूर्त में जब दो घड़ी रात्रि रह जाये, तब उठकरशौच आदि से निवृत्त होकर दन्त-धावन आदि करें, उसके बाद नदी, तालाब, कुआं, बावड़ी या घर में ही जैसा सम्भव हो स्नानादि करें, फिर भगवान् की पूजा करके कथा सुने और फिर व्रत का नियम ग्रहण करना चाहिए।”

उस समय भगवान् से विनय करें- “हे भगवन्! आज मैं निराहार रहकर व्रत करूंगा, आप मेरी रक्षा कीजिये। दूसरे दिन द्वादशी को भोजन करूंगा।”

तत्पश्चात् भक्ति-भाव से व्रत करें तथा रात्रि को भगवान् के आगे नृत्य, गीतादिक करना चाहिए। प्रबोधिनी एकादशी को कृषणता को त्यागकर बहुत-से पुष्प, फल, अगर, धूप आदि से भगवान् का पूजन करना चाहिए। शंख के जल से भगवान् को अर्घ्य देवे। इसका समस्त तीर्थों से करोड़ गुना फल होता है। जो मनुष्य अगस्त्य के पुष्प से भगवान् का पूजन करते हैं, उनके आगे इन्द्र भी हाथ जोड़ता है। तपस्या करके सन्तुष्ट होने पर हरि भगवान् जो नहीं करते, वह अगस्त्य के पुष्पों से भगवान् को अलंकृत करने से करते हैं। जो कार्तिक मास में बिल्वपात्र से भगवान् की पूजा करते हैं, वे मुक्ति को प्राप्त होते हैं।

कार्तिक मास में जो तुलसी से भगवान् का पूजन करते हैं, उनके दस हजार जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।तुलसी दर्शन करने, स्पर्श करने, कथा कहने, नमस्कार करने, स्तुति करने, तुलसी रोपण, जल से सींचने और प्रतिदिन पूजन सेवा आदि करने से हजार करोड़ युगपर्यन्त विष्णुलोक में निवास करते हैं। जो तुलसी का पेड़ लगाते हैं, उनके कुटुम्ब में उत्पन्न होने वाले प्रलयकाल तक विष्णुलोक में निवास करते हैं।

“हे मुनि ! रोपी हुई तुलसी जितनी जड़ों का विस्तार करती है, उतने ही हजार युगपर्यन्त तुलसी रोपण करने वाले के सुकृत का विस्तार होता है। जिस मनुष्य की रोपण की हुई तुलसी की जितनी शाखा, प्रशाखा, बीज और फल पृथ्वी में बढ़ते हैं, उसके उतने ही कुल जो बीत गये हैं तथा होंगे दो हजार कल्प तक विष्णुलोक में निवास करते हैं। जो कदम्ब के पुष्पों से हरि का पूजन करते हैं, वे भी कभी यमराज को नहीं देखते। जो गुलाब के पुष्पों से भगवान् का पूजन करते हैं, उन्हें मुक्ति मिलती है।

जो वकुल और अशोक के फूलों से भगवान् का पूजन करते हैं, वे सूर्य, चन्द्रमा के रहने तक किसी प्रकार का शोक नहीं पाते। जो मनुष्य नफेद या लाल कनेर के फूलों से भगवान् का पूजन करते हैं, उन पर भगवान् अत्यन्त प्रसन्न रहते हैं और जो गवान् पर आम की मंजरी चढ़ाते हैं, वे करोड़ों गौओं – दान का फल पाते हैं। जो दूब के अंकुरों से भगवान्की पूजा करते हैं, वे सौ गुना पूजा का फल पाते हैं। जो शमी के पत्र से भगवान् की पूजा करते हैं, उनको महाघोर यमराज के मार्ग का भय नहीं रहता। जो भगवान् का चम्पा के फूलों से पूजन करते हैं, वे मनुष्य फिर संसार में नहीं आते। जो मनुष्य केतकी का पुष्प भगवान् पर चढ़ाते हैं, उनके करोड़ों जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं, जो पीले रक्तवर्ण के कमल के पुष्पों से भगवान् का पूजन करते हैं, उनको श्वेत द्वीप में स्थान मिलता है। इस प्रकार रात्रि को भगवान् का पूजन कर प्रातःकाल होने पर उठकर नदी पर जायें और वहां स्नान, जप तथा प्रातःकाल के कर्म करके घर पर आकर विधिपूर्वक भगवान् केशव का पूजन करें। व्रत की समाप्ति पर विद्वान् ब्राह्मणों को भोजन करायें और दक्षिणा देकर क्षमा याचना करें। इसके पश्चात् भोजन, गौ और दक्षिणा देकर गुरु का पूजन करें, ब्राह्मणों को दक्षिणा दें और जो चीज व्रत के आरम्भ में छोड़ने का निश्चय किया था, वह ब्राह्मणों को दे।

“हेराजन् ! रात्रि में भोजन करने वाला मनुष्य ब्राह्मणों को भोजन करायें और स्वर्ण सहित बैल का दान करें। जो मनुष्य मांसाहारी नहीं है, वह गौ का दान करें। आंवले से स्नान करने वाले मनुष्य को दही और शहद का दानकरना बाहिए। जो मनुष्य फलों को त्यागे, वह फलदान करे। तेल छोड़ने पर घृत और घृत छोड़ने पर दूध, अन्न छोड़ने पर चावल का दान दिया जाता है। जो भूमि शयन का व्रत लेते हैं, उनको शय्या दान तथा तुलसी सब सामग्री सहित देनी चाहिए। पत्ते प्नर भोजन करने वाले को स्वर्ण का पत्ता घृत सहित देना चाहिए। मौन व्रत धारण करने वाले को ब्राह्मण और ब्राह्मणी को घृत तथा मिठाई का भोजन करना चाहिए।

बाल रखने वाले को दर्पण, जूता छोड़ने वाले को एक जोड़ी जूता, लवण त्यागने वाले को शर्करा दान करनी चाहिए। मन्दिर में दीपक जलाने वाले को तथा नियम लेने वाले को व्रत की समाप्ति पर ताम्र अथवा स्वर्ण के पत्र पर घृत और बत्ती रखकर विष्णु भक्त ब्राह्मण को दान देना चाहिए। एकान्त व्रत में आठ कलश वस्त्र और स्वर्ण से अलंकृत करके दान करना चाहिए। यदि यह भी न हो सके, तो इनके अभाव में ब्राह्मणों का सत्कार सब व्रतों की सिद्धि देने वाला कहा गया है। इस प्रकार ब्राह्मण को प्रणाम करके विदा करें। इसके पश्चात् स्वयं भी भोजन करें। जिन वस्तुओं को चातुर्मास में छोड़ा हो, उन वस्तुओं की समाप्ति करें, अर्थात् ग्रहण करने लग जाये। “हे राजन् ! जो बुद्धिमान् इस प्रकार चातुर्मास व्रतनिर्विघ्न समाप्त करते हैं, वे कृतकृत्य हो जाते हैं और फिर उनका जन्म नहीं होता। यदि व्रत भ्रष्ट हो जाये, तो व्रत करने वाला अन्धा या कोढ़ी हो जाता है। भगवान् कृष्ण कहते हैं-

“हे राजन्! जो तुमने पूछा था, वह मैंने बतलाया। इस कथा को पढ़ने तथा सुनने से गौ दान का फल प्राप्त होता है।”

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